शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

कांग्रेस का चुनावी घोषणापत्र ः आसमानी वादों से जमीन तलाशने की कोशिश


जमीनी हकीकत से कोसों दूर हो चुकी कांग्रेस ने अपने चुनावी वादे में इस बार गरीबों के साथ 'न्याय' करने का एक नया शिगूफा छोड़ा है. जिस तरह से सत्ता पर काबिज होने का उतावलापन लिये कांग्रेस एक से बढ़कर एक वादे कर रही है, उसमें सच्चाई और ईमानदारी की कल्पना तो कांग्रेसी भी नहीं कर रहे होंगे. कांग्रेस जनता को जो सपने 2019 में आकर दिखा रही है, वही तथाकथित समाजवादी सपने इंदिरा गांधी के समय से दिखाये जाते रहे हैं. गरीबी हटाओ की जो कवायद 40 साल पहले शुरू हुई थी, अब नये रंग-रोगन के साथ प्रस्तुत है, तस्वीर बदल गयी है अब इंदिरा गांधी की जगह राहुल की मुस्कराती तस्वीर लग गयी है. देश और दुनिया के आर्थिक हालातों को देखकर अगर कांग्रेस के रणनीतिकार  फैसला करते, तो शायद गरीबी उन्मूलन और रोजगार सृजन को लेकर बेहतर और दूरगामी दृष्टिकोण प्रस्तुत कर पाते. उत्साहित होकर चिदंबरम ने तो यहां तक कह दिया कि कांग्रेस की घोषणा से मौजूदा चुनावी मिजाज ही बदल जायेगा. चिदंबरम ने दावा किया कि बेरोजगारी, कृषि समस्या और महिला सुरक्षा कांग्रेस की तीन शीर्ष प्राथमिकताएं हैं. इससे कौन असहमत हो सकता है कि इस दौर में बेरोजगारी सबसे बड़ी चिंता का विषय है. यह समस्या अकेले आज नहीं उठ खड़ी हुई है, ये कांग्रेसी सरकारों की नीतिगत अपंगता का ही परिणाम है. अगर कृषि में लगे छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों को वैकल्पिक रोजगार दिलाने वाली नीतियों पर समय रहते काम किया गया होता, तो  शायद समस्या इतनी भयावह नहीं होती. लंबे अरसे से खेती-किसानी नजरअंदाज होती रही, रोटी-रोजगार की तलाश में मजदूरों का पलायन होता रहा, जिससे शहरों में आबादी का बोझ बढ़ा और रोजगार का संकट भी. लेकिन पूर्ववर्ती सरकारों ने इस समस्या को इतना बड़ा माना ही नहीं कि उस पर कोई ठोस पहल हो सके.
कांग्रेस के वादे संशय पैदा करते हैं, जिसके पीछे मुख्य रूप से दो कारण है- पहला यूपीए की पूर्ववती सरकारों का अकंठ भ्रष्टाचार और ठोस नीति को बनाने तथा उसको लागू करने की प्रशासनिक अक्षमता. साल 2012-13 का आर्थिक सर्वेक्षण स्पष्ट रूप से कहता है कि उद्योग जगत में असंतोष और गिरावट की मुख्य वजह सरकार द्वारा पैदा की गयी अनिश्चितता और भ्रष्टाचार के शृंखलाबद्ध कारनामे थे. यही वजह थी कि यूपीए-2 के अंतिम वर्षों में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में निवेश में लगातार गिरावट आती रही. उसी दौर में रोजगार संकट की आहट होने लगी थी. महंगाई को नियंत्रित कर पाने में सरकार असफल रही. आर्थिक समस्याओं से निपटने और भविष्य में विकास के लिए निवेश को प्रोत्साहन के बजाय कांग्रेस लोकलुभावन नीतियों को बनाती रही. सरकार और कांग्रेसी आर्थिक विशेषज्ञ देश की आर्थिक समस्याओं के लिए वैश्विक मंदी को दोष देते रहे, जबकि योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष मांटेक सिंह अहलूवालिया ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में यह स्वीकार कर लिया था कि भारत की विकास दर में गिरावट की प्रमुख वजह घरेलू स्तर की समस्याएं हैं.
कांग्रेस ने अपने नये वादे में 2030 तक गरीबी खत्म करने का लक्ष्य रखा है. साथ ही न्यूनतम आय योजना के तहत देश के पांच करोड़ गरीब परिवारों को 72000 रुपये सलाना दिये जाने का वादा किया है. एक अनुमान के मुताबिक इस योजना के लागू होने से लगभग 3.6 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च आयेगा. यह कैसे लागू होगा और जरूरतमंदों को लाभ कैसे मिलेगा, घोषणापत्र से कुछ स्पष्ट नहीं है. वर्तमान में सरकार खाद्य, उर्वरक, किसान और आयुष्मान भारत जैसी तमाम कल्याणकारी योजनाओं पर सलाना 5.34 लाख करोड़ रुपये खर्च करती है. सरकार पहले से प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण की दिशा में आगे बढ़ चुकी है, जो निश्चित ही स्वागतयोग्य है. इससे भ्रष्टाचार के मामलों में कमी आयी है. जब कोई सरकारी योजना आती है, तो उसको लागू करने में बड़ी लागत आती है और इसी दौरान हेराफेरी और भ्रष्टाचार जैसे मामले पनपते है. बढ़ते ऑटोमेशन और वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों की संरक्षणवादी नीतियों के चलते रोजगार की समस्या बढ़ रही है. ऐसे में नयी स्किल के जानकारों जरूरत है, जो जॉब मार्केट की मांग की अनुरूप काम करने में सक्षम हों, उसके लिए कार्ययोजना बनाकर शिक्षण-प्रशिक्षण की बेहतर व्यवस्था करनी होगी. दुर्भाग्य से कांग्रेस के घोषणापत्र में इसका कोई जिक्र नहीं है. कौशल विकास की दिशा में नये सिरे से सोचने और नया कुछ करने की जरूरत है, तभी रोजगार के संकट से पार पाया जा सकता है. चुनावी मौसम में हितैषी बनने का ढोंग देश की जनता वर्षों से देखती आयी है और उम्मीद है कि जनता तमाम दलों के जुमलों को समझकर ही  मतदान करेगी.

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

आइटी कैरियर छोड़ खड़ा किया डेयरी उद्योग

देश की आत्मा गांवों में बसती है. गांवों से जुड़ा हर भारतीय जो सुकून गांवों में महसूस करता है, उसे शायद ही दुनिया के किसी कोने में यह नसीब हो. यही वजह है संतोष सिंह जैसे तमाम युवा प्रोफेशनल कॉरपोरेट जिंदगी से ऊबकर गांवों में जिंदगी की खुशियां तलाशने आते हैं. उद्यमिता की तमाम संभावनाओं से भरे ग्रामीण परिवेश में संतोष ने डेयरी उद्योग में मील पत्थर पार किया है. आइये जानते हैं आइटी प्रोफेशन में शानदार कैरियर बनाने के बाद डेयरी बिजनेस में सफल उद्यमी के रूप में पहचान बनाने वाले संतोष डी सिंह की सफलता की कहानी...
हमारे देश में कृषि और पशुपालन ग्रामीण जीविकोपार्जन का सबसे बड़ा साधन है. देश में पशुपालन मुख्यत: डेयरी उत्पादों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है. मिल्क प्रोडक्ट्स की मांग लगातार बढ़ने से इस क्षेत्र में व्यवसाय के नये-नये रास्ते खुल रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक देश में डेयरी मार्केट का अनुमानित कारोबार 4.3 लाख करोड़ का है. इंन्वेस्टर रिलेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया का भी मानना है कि डेयरी मार्केट लगभग 17 प्रतिशत वार्षिक दर के साथ बढ़ रहा है. यही वजह के कॉरपोरेट सेक्टर में लंबा अनुभव रखनेवाले प्रोफेशनल्स भी डेयरी जैसे उद्यम में अपनी किस्मत अजमा रहे हैं. ओड़िशा, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश सहित देश के कई भागों में डेयरी उद्योग के प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है. इस क्षेत्र में असीम संभावनाओं को देेखते हुए संतोष डी सिंह ने आइटी प्रोफेशन को छोड़कर डेयरी उद्योग को चुनने का फैसला किया. मात्र तीन गायों से सहारे डेयरी बिजनेस की शुरुआत करनेवाले संतोष का आज सलाना टर्नओवर एक करोड़ से ज्यादा है.
आइटी सेक्टर से हुई कैरियर की शुरुआत
संतोष ने बेंगलुरु से इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी में पोस्टग्रेजुएशन करने के बाद आइटी इंडस्ट्री की ओर रुख किया. इस दौरान डेल सहित बड़ी आइटी कंपनियों में 10 साल तक जॉब करने के दौरान दुनिया के कई देशों का दौरा किया. संतोष के मुताबिक उन दिनों भारत में आइटी इंडस्ट्री अपने शुरुआती चरण में थी. देश-विदेश की यात्रा के बीच संतोष को खुद का व्यवसाय शुरू करने का प्लान बनाया. योरस्टोरीडॉट की रिपोर्ट की मुताबिक संतोष कुछ ऐसा करना चाहते थे, जिसके जरिए वह हमेशा प्रकृति के नजदीक रहकर काम कर सकें. ऐसे में उनके दिमाग में डेयरी फार्मिंग का आइडिया आया. संतोष को महसूस हुआ कि भारतीय कृषि की अनिश्चितता को देखते हुए डेयरी फार्मिंग स्थिर और लाभदायक व्यवसाय है. पारिवारिक विचार-विमर्श के बाद संतोष ने अपनी जॉब छोड़ने का फैसला कर लिया.
एनडीआरआइ से ली ट्रेनिंग
आइटी सेक्टर में होने की वजह से संतोष के पास खेती-किसानी की प्रायोगिक जानकारी नहीं थी. ऐसे में व्यवसाय को नयी शक्ल देने के लिए उन्हें कई बड़ी और विपरीत चुनौतियों से निपटना था. डेयरी फारमिंग की बारीकियों को सीखने और अनुभव हासिल करने के लिए संतोष ने नेशनल रिसर्च डेयरी इंस्टीट्यूट (एनडीआरआइ) में प्रशिक्षण के लिए दाखिला ले लिया. इस दौरान संतोष ने पशुओं की देखभाल और प्रबंधन की जानकारी हासिल की. संतोष को कॉरपोरेट सेक्टर वर्कप्लेस में जो सुकून 10 में साल में नहीं मिला, वह डेयरी फार्म के खुले माहौल में उन्होंने महसूस किया. खेतों में रहकर काम करने से आत्मविश्वास बढ़ता गया और उन्हें यह महसूस हो गया कि पशुपालन एक आकर्षक पेशा है, जिसमें लंबे समय तक रहकर सुकून से कामयाबी की नयी ऊंचाइयों को छुआ जा सकता है.
कम पूंजी से हुई शुरुआत
संतोष ने अपने उद्यम अमृता डेयरी फार्म्स की शुरुआत मात्र तीन गायों के साथ की. डेयरी को चलाने के लिए संतोष ने करीब 20 लाख रुपये का बजट रखा. शुरुआत में गायों को नहलाने, दूध निकालने और साफ-सफाई संतोष खुद ही करते थे. एक साल में काम को तेजी से बढ़ाया, साल के अंत तक गायों की संख्या 20 हो गयी. संतोष को ट्रेनिंग देने वाले एनडीआरआइ के प्रशिक्षक भी नियमित तौर पर उनके फार्म पर आया करते थे. प्रशिक्षकों की सलाह पर संतोष ने तकनीकी मदद के लिए नाबार्ड का रुख किया. संतोष ने नाबार्ड के सहयोग और प्रोत्साहन से काम को और तेजी से बढ़ाया. धीरे-धीरे गायों की संख्या बढ़कर 100 हो गयी, जिससे रोजाना 1500 लीटर दुग्ध का उत्पादन होने लगा. बड़े पैमाने पर दूध उत्पादन होने से डेयरी का सलाना कारोबार एक करोड़ रुपये को पार कर गया. पिछले पांच वर्षों में आमदनी का स्तर लगातार बढ़ रहा है. काम को बढ़ाने में नाबार्ड के साथ-साथ स्टेट बैंक ऑफ मैसूर ने भी मदद की.
समस्याओं से भी किया मुकाबला
कामयाबी का रास्ता कभी भी आसान नहीं होता है. डेयरी फार्म में एक ओर कामयाबी मिल रही थी, वहीं सूखे जैसे कई समस्याओं से सामना करना पड़ा. डेढ़ साल के अकाल के दौरान पशुओं के लिए चारा इकट्ठा करना संतोष के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द था. बढ़ते पशुपालन खर्च के साथ प्रोडक्शन को बरकरार रखने के लिए संतोष ने कई तकनीकों को सहारा लिया. संतोष डेयरी को चलाने के लिए लंबी जद्दोजहद कर रहे थे, इस बीच छोटे-मोटे कई डेयरी फार्म बंद हो गये. पशुओं के चारे के लिए संतोष ने हरे चारे का उत्पादन करने का फैसला किया. उन्होंने हाइड्रोफोनिक्स यूनिट की स्थापना की, जिससे बाजार से कम कीमत पर हरा चारा उपलब्ध होने लगा. ऐसे कई प्रयासों ने संतोष को एक सफल एंटरप्रेन्योर के रूप में पहचान बनाने में मदद की.



सॉफ्टवेयर इंजीनियर, जो बना किसानों का मसीहा

 तन को झुलसाती गरमी, तो कभी सर्दियों की ठिठुरन जैसे मौसम अन्नदाता किसानों का चरणबद्ध तरीके से इम्तिहान लेते हैं. कई बार तो मौसम और महंगाई इतना मजबूर कर देते हैं कि किसान मौत की रास्ता चुन लेते हैं. देश में यह समस्या आज कोई नयी है, बल्कि लगातार विकराल होती समस्या है. ऐसे में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर पेशे को छोड़कर खेती-किसानी को चुन लेना, कतई आसान नहीं है. मधुचंदन ने इस रास्ते पर चलने फैसला ही नहीं किया, बल्कि कामयाबी की एक नयी इबारत लिख डाली, जो किसानों के लिए एक मिसाल और हमारे लिए एक प्रेरणा है.
देश की लगभग दो तिहाई आबादी के लिए जीवन-यापन का साधन कृषि का भारतीय अर्थव्यवस्था में योगदान कम होता जा रहा है. कृषि को जिस तरक्की के मुकाम पर पहुंचाना था, वैसी कामयाबी नहीं मिली. छोटे किसानों और कृषि मजदूरों की स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या जैसा बेहद दुर्भाग्यपूर्ण कदम उठाते हैं. जिस गति से अन्य क्षेत्रों में तकनीकी विकास का प्रसार हुआ, उतना कृषि के हिस्से में नहीं आ पाया. मौसम की मार और बढ़ती महंगाई परंपरागत कृषि पर निर्भर किसानों को उबरने का मौका ही नहीं देती. इन सबके बीच राहत की बात यह है कि कुछ युवाओं की रुझान कृषि के व्यवसायीकरण और कृषि उत्पादों की मार्केटिंग की तरफ हुई है. भले ही आज हमें धरातल पर इसका नतीजा न दिखें, लेकिन आने वाले समय में बड़े स्तर पर इन योजनाओं के लागू होने पर लाखों लोगों का भाग्य बदल सकता है.
नयी सोच से दिखायी उम्मीद की किरण

अगस्त, 2014 तक अमेरिकी जीवनशैली में जिंदगी जीनेवाला शख्स, जिसके पास दुनिया की कई प्रतिष्ठित कंपनियों में काम करने और सैन जोंस में एक कंपनी के सहसंस्थापक के रूप में अनुभव हो, उस व्यक्ति ने एक दिन कठिन जिंदगी जीने का फैसला ले लिया और कैलिफोर्निया से निकल कर कर्नाटक के मांड्या जिले को अपनी कर्मभूमि बनाया. सॉफ्टवेयर डेवलपर के रूप में कैरियर के कई बड़े मुकाम हासिल कर चुके मधुचंदन ने अपने गृह जनपद मांड्या में 300 से अधिक किसानों के लिए उम्मीद की किरण जगायी है. मांड्या कर्नाटक का ऐसा जिला है, जहां पिछले एक वर्ष में कर्ज में डूबे अनेक किसानों ने आत्महत्या की है. मधुचंदन के आने के बाद सैकड़ों किसानों को जिंदगी जीने का एक नया नजरिया तो मिला ही है, साथ ही व्यवसायिक कृषि को भी एक अच्छी दिशा मिली है.
ऑर्गेनिक फॉर्मिंग को बनाया तरक्की का हथियार
भारत में कृषि ही करोड़ों के जीवन का आधार है. कृषि को एक नयी दिशा देने के लिए हाल-फिलहाल में कई तकनीकें प्रचलन में आयी हैं. मधुचंदन ने ऑर्गेनिक फॉर्मिंग की तकनीक से लगभग 300 किसानों को जोड़ा. इस विधा से किसान उत्पादों की अच्छी कीमत हासिल कर रहे हैं. मधुचंदन ने मांड्या ऑर्गेनिक फॉर्मर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी से जुड़े 270 किसान नियमित तौर पर रिटेल आउटलेट के माध्यम से अपने उत्पादों को बेच कर एक वैकल्पिक रोजगार की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं. ऑर्गेनिक मांड्या का रिटेल आउटलेट बंगलुरु-मेसुरु हाइवे पर ऑर्गेनिक सब्जियों, अनाज, दालों और अन्य कृषि उत्पादों की बिक्री करता है.
किसान के रूप में मिलती है संतुष्टि
कई आइटी कंपनियों में काम करने के बाद मधु ने 2005 में दोस्तों के साथ मिलकर वेरीफाया नाम की कंपनी की नींव रखी, मधु द्वारा विकसित ऑटोमेटेड टेस्टिंग सॉफ्टवेयर दुनियाभर में कॉरपोरेट इस्तेमाल करते हैं. मधु ने अपने प्रोफेशनल कैरियर में कामयाबी हर मुकाम पर उपस्थिति दर्ज करायी है. इस बीच मधु ने इजरायल, यूके, फिलिपींस, अफ्रीका और यूएस जैसे देशों में काम किया. बावजूद इसके मधु को जो शुकून एक किसान के रूप में मिला, वह पहले कभी नहीं मिला. मधुचंदन अपने जनपद को पूर्ण रूप से केमिकल फ्री जोन और ऑर्गेनिक डिस्ट्रिक्ट के रूप में परवर्तित करना चाहते हैं. मधु का मानना है कि जो संतुष्टि आपको एक किसान के रूप में मिलती है, वह आप दुनिया किसी भी जॉब में हासिल नहीं कर सकते हैं.
कृषि का स्वरूप बदलना जरूरी
किसान उत्पादों का सही मूल्य हासिल कर सकें, इसके लिए जरूरी है कि कम्युनिकेशन, टेक्नोलॉजी और मार्केंटिंग के तौर सहायता उपलब्ध करायी जाये. लाखों लोगों का पेट भरने के लिए दिन-रात मशक्कत करने वाले किसानों के बीच आत्मविश्वास जगाने की जरूरत है. मिट्टी की उर्वरता को बरकरार रखने के लिए जागरूकता जरूरी है. मधु का मानना है कि समस्या इस बात की है कि हमारे देश में कृषि विशेषज्ञों के पास पर्याप्त सैद्धांतिक ज्ञान होता है, लेकिन व्यवहारिक ज्ञान में शून्य होते हैं. हमारे कृषि विश्वविद्यालयों में विशेषज्ञों के बजाय अनुभवी किसानों को नियुक्त करने की जरूरत है. मांड्या ऑर्गेनिक फॉर्मर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी में 270 किसानों के अलावा आयुर्वेद डॉक्टर और कृषि वैज्ञानिक भी हैं, जो कृषि क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव के लिए प्रयासरत हैं.


शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

कभी थीं फार्म मजदूर, आज आइटी कंपनी की सीइओ


अनाथालय में बचपन बितानेवाली ज्योति रेड्डी आज अनाथ बच्चों के लिए उम्मीद की किरण हैं. जिस विश्वविद्यालय ने कभी उन्हें नौकरी देने से मना कर दिया था, आज उसी विश्वविद्यालय में डिग्री के सेकेंड इयर के छात्र ज्योति के ऊपर लिखे गये अध्याय को पढ़ते हैं. ज्योति फर्श से अर्श तक पहुंचने की कहावत को चरितार्थ करती हैं. आइये जानते हैं ज्योति के इस प्रेरणादायक सफर को...
 ब्रह्मानंद मिश्र
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जहां चाह, वहां राह. यह हमारे लिए भले ही महज एक कहावत हो, लेकिन ज्योति रेड्डी के लिए उनके संघर्षपूर्ण कहानी का यह बेजोड़ शीर्षक है. बचपन में ही सिर से मां साया उठ गया. बचपन अनाथालय में बीता. मात्र 16 साल की उम्र में 10 साल बड़े व्यक्ति से शादी हो गयी, दो साल बाद 18 साल की आयु में दो बच्चियों की परवरिश की जिम्मेवारी. दिनभर की मजदूरी और शाम को कमाई के मिलते थे पांच रुपये. शाम को चूल्हा जलाकर खाना पकाना. ऐसी न जानें कितनी दुश्वारियों से गुजरते हुए ज्योति अमेरिका पहुंची. इन्हीं संघर्षों के बीच आया एक आइडिया, शुरू हुई एंटरप्रेन्योरशिप और ज्योति आज हैं प्रसिद्ध आइटी कंपनी की करोड़पति सीइओ. भले ही यह बॉलीवुड की किसी फिल्म की कहानी लग रही हो. लेकिन सच्चाई यही है.

बचपन बीता अनाथालय में
बेहद गरीब परिवार में जन्मी ज्योति पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर थी. बचपन में मां को खो देने के कारण अनाथालय परवरिश का सहारा बना. एक बार शिवरात्रि के दिन मंदिरों में होने वाले कार्यक्रम को देखने के लिए सहेलियों के साथ निकली ज्योति अनाथालय में आधी रात तक नहीं पहुंची. कार्यक्रम के बाद ज्योति वारंगल के किसी गांव में फिल्म देखने पहुंच गयी. देर रात वापस आने पर खूब डांट पड़ी. फिल्म से प्रेरित होकर ज्योति ने सोचा कि वह शादी प्रेम के लिए करेंगी. एक खूबसूरत जिंदगी का सपना बुनना शुरू भी नहीं हुआ था कि मात्र 16 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गयी. और इस तरह जिंदगी के सारे सपने धरे के धरे रह गये.

ज्योति 10वीं में तो फर्स्ट क्लास आयी थीं, लेकिन मुफलिसी ने आगे की पढ़ाई ही नहीं करने दी. पति 12वीं भी पास नहीं थे, रोजाना की जिंदगी चलाने के लिए बस एक ही सहारा था- दैनिक मजदूरी. तेलंगाना की तपती गरमी में धान के खेतों में मजदूरी करके ज्योति शाम तक बामुश्किल से पांच रुपये कमा पाती थीं. जिम्मेदारियां बढ़ती गयीं, 18 साल की उम्र में दो बच्चियों की मां बन गयीं. दिन भर की मजदूरी के बाद ज्योति को शाम को आकर परिवार के लिए लकड़ी जलाकर चूल्हे पर खाना भी पकाना पड़ता था. जिंदगी भले ही इम्तिहान ले रही थी, लेकिन ज्योति की सोच की इससे कहीं बड़ी व बुलंद थी और अंतत: वह विजेता बन कर उभरीं.

धीरे-धीरे जिंदगी ने ली करवट
ज्योति मेहनत-मजदूरी करके घर संभाल रही थीं. इस बीच उन्होंने नाइट स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. जिंदगी बदली और वह मजदूर से सरकारी शिक्षक बन गयीं. ज्योति ने वारंगल के गांवों में घूम-घूमकर युवाओं और महिलाओं को कपड़ों की सिलाई-कढ़ाई सिखाने लगी. जॉब में प्रमोशन होने के बाद ज्योति महीने में 120 रुपये तक कमा लिया करती थीं. धीरे-धीरे उन्होंने एक लाख रुपये इकट्ठा कर लिया, जो उनके परिवार को चलाने और बच्चियों की देखभाल के लिए पर्याप्त रकम थी.

अमेरिका जाने का बना प्लान और मिली कामयाबी


आंबेडकर ओपेन यूनिवर्सिटी से वोकेशनल कोर्स करने के बाद ज्योति ने वारगंल की ककातिया यूनिवर्सिटी से अंगेरजी से एमए कोर्स में दाखिला लिया. वह सोचा करती थी कि उनके घर के नेमप्लेट पर लिखा हो- डॉ अनिला ज्योति रेड्डी. लेकिन किसी कारणवश एमए पूरा नहीं हो सका. इस बीच अमेरिका में रहनेवाले किसी रिश्तेदार उनकी मुलाकात हुई. उनकी सलाह पर ज्योति ने अमेरिका में नौकरी करने की योजना बना ली. इसके बाद ज्योति बकायदा हैदराबाद जाकर कंप्यूटर सॉफ्टवेयर क्लास करने लगीं. वर्ष 1994-95 के दौरान ज्योति का वेतन 5000 रुपये मासिक था. फिर उन्होंने चिट फंड का काम शुरू किया, जिससे वह 25000 रुपये प्रतिमाह तक काम लिया करती थीं.
किस्मत से मुकाबला करते हुए आखिरकार ज्योति अमेरिका पहुंच ही गयीं. हालांकि अच्छी अंगेरजी जानकारी और कोई सपोर्ट न होने के कारण दिक्कतें भी उठानी पड़ीं. वहां उन्होंने सेल्स गर्ल, रूम सर्विस पर्सन, गैस स्टेशन अटेंडेट, वरजीनिया में सॉफ्टवेयर रिक्रूटर जैसी कई नौकरियां कीं. उनके अनुसार पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने उन्हें सलाह दी कि 11 साल से 16 साल के बीच बच्चों का चरित्र का निर्माण होता है. हालांकि इस उम्र में ज्योति अनाथालय में रहीं. लेकिन उन्होंने बच्चों की जिंदगी में इस आदर्श को उतारने का निर्णय लिया.

अपनी किस्मत खुद लिखो
ज्योति हर वर्ष 29 अगस्त को अपना जन्मदिन अनाथ बच्चों के मनाने के लिए भारत आती हैं. वह अनाथ बच्चे-बच्चियों के लिए कई योजनाएं चला रही हैं. महिलाओं के मुद्दे पर वह कहती हैं आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है. वह कहती हैं बच्चों की देखभाल करना जिंदगी नहीं है, बल्कि जिंदगी का एक हिस्सा है. वह कहती हैं आगे बढ़ो और अपनी किस्मत खुद लिखो.

यह आलेख दैनिक प्रभात खबर के 24 सितंबर, 2015 के अंक में प्रकाशित हुआ था